शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

"अभिव्यक्ति की आज़ादी" पर रविश कुमार का दोहरा चरित्र

रविश कुमार जी, ग़ज़ब की काबिलियत है आपकी ! दूसरो को खूब बेवकूफ़ बनाते हो ! दरअसल ये समस्या सिर्फ़ आपकी ही नहीं बल्कि उस पूरे जमात की ही है जो "अभिव्यक्ति की आज़ादी" का भौंदा नारा लगते हैं ! आप लोग अपने इस नारे की आड़ मे सिर्फ़ और सिर्फ़ दूसरों को गली देने का काम करते हो ! जब भी कोई आपको उत्तर देना चाहेगा , कन्नी काट जाते हो, उसकी बात ही नहीं सुनना चाहते ! जो आप से , आपकी बातों से या आपके विचारों से सहमत नहीं है उन  सभी के बारे मे आप और आपके गैंग की सिर्फ़ एक ही सोच है कि "ये संघी हैं, भक्त है" आदि आदि ! ये बातें मैं इसलिए नहीं लिख रहा कि किसी ने मुझसे कुछ बताया है, बल्कि इसलिए लिख रहा हूँ कि यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ! कुछ दिनो से आपके ब्लॉग नई सड़क पर जब भी कोई टिप्पणी करना चाहता हूँ तो एक सूचना दिखाई देती है "आपकी टिप्पणी को प्रकाशित नहीं कर सकते , क्योंकि आपको प्रतिबंधित कर दिया गया है टीम नई सड़क द्वारा"
Snap shot of Blog where comment banned



मुझे खूब याद है कि कभी भी मैने कोई ऐसे शब्द नहीं लिखे टिप्पणी मे जो अवांछित हो, अनर्गल हो ! बस आपके विचारों के पटापेक्ष मे अपने विचार ही लिखे हैं ! याद आता है कि जब आपने एम जे अकबर के मंत्री बन जाने पर आपने उनको एक खुला पत्र उन्हे लिखा था तो उसे लेख पर मैने भी आपसे कुछ सवाल पूछे थे मसलन जैसे कि अगस्टा वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील मे जिन पत्रकारों के नाम आए उनको आपने कब चिट्ठी लिखी, जिस पत्रकार का नाम नीरा रादिया टेप मे आया था उनको आपने कब चिट्ठि लिखी, जिन पत्रकारों को विजय मलया ने ललकारा कि मेरे ही पैसों पर मौज करने वाले पत्रकार मेरा ही अपने स्टूडियो मे एनकाउंटर कर रहे हैं तो उन पत्रकारों को आपने कब चिट्ठी लिखी, शायद आप उसी उत्तर से चिढ़ गये ! तो मेरा आपने अनुरोध है कि कृपया यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के ढोंग वाला चोला उतार फेंको

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

अभिसार शर्मा के नाम खुला पत्र

 अभिसार शर्मा जी(आमआदमी पार्टी के मुखपत्र पर लिखा अभिसार शर्मा का लेखतो मुद्दा यह है कि उस वीडियो की जब सक्रीनिंग आपके स्टूडियो मे हो रही थी तो क्या उस वीडियो को देखने वालों मे ऐसा कोई भी नहीं था जो उन संदेहास्पद चीज़ों पर गौर करता ! आख़िर खबर दिखाने की इतनी होड़ क्यों , पब्लिक को बेवकूफ़ बनाने के लिए ?  TRP के लिए ? या दिल्ली सरकार पर दबाव डालने के लिए ? और आप कदाचित् इन तीनो को ही हासिल कर लिए ! जनता को गुमराह किया और सरकार पर दबाव डलवाकर संदीप कुमार को बर्खास्त भी करवाने मे कामयाब हो गये ! लेकिन  उस IRS ऑफीसर जो की IIT पास आउट भी है , उनके निर्णय पर ज़रूर प्रश्न चिन्ह लगा देता है !

इस गंदगी के दाग केजरीवाल के हिस्से भी आई , इस कांड का खुलासा करने वाले ने यह भी बताया कि सीडी की जानकारी केजरीवाल को 15 दिन पहले ही हो गई थी तो शक होता है कि ने जानबूझकर सीडी की सत्यता की जाँच नहीं करवाई या फिर उन्होने भी यह मान लिया था कि संदीप कुमार सच मे अपराधी हैं ! केजरीवाल ने अंदर ही अंदर संदीप कुमार से ज़रूर स्पष्टीकरण माँगा होगा , लेकिन उन्हे यह भान नही रहा होगा कि इसे TRP की भूखी मीडीया मे भी दे दिया जाएगा ! और जब संदीप कुमार को अपराधी मान लिया गया तो आपको दर्शको पर ठीकरा फोड़ने की ज़रूरत नहीं है !

आपके न्यूज़ चैनल के खुलासे के बाद , संदीप कुमार की प्रतिक्रिया आने से पहले ही अरविंद केजरीवाल ने फ़ैसला सुना दिया और बा-कायदा वीडियो संदेश जारी करके कहा कि संदीप कुमार ने पूरे मूव्मेंट को शर्मसार किया अर्थात अपराधी घोषित किया (राम जाने किस मूव्मेंट की बात कर रहे थे क्योंकि इंडिया अगेन्स्ट करप्षन मूव्मेंट मे संदीप कुमार शामिल नहीं थे ) ! और संदीप कुमार ने अपने बयान मे अपनी तुच्छ राजनीति की झलक देते हुए सिर्फ़ इतना ही कहा कि मुझे एक दलित होने के नाते फँसाया जा रहा है ! लेकिन उन्होने इस सीडी के बारे मे बिल्कुल नहीं बताया उसमे दिखने वाला इंसान वो है या नहीं ! सिर्फ़ इतना कि एक दलित होने के नाते फँसाया जा रहा है !

इस फिल्म के संदीप कुमार के होने का दावा किया आपकी पत्रकार बिरादरी ने ! इन सबने मिलकर यह तस्दीक़ की कि ABP NEW जिसे सेक्स स्कॅंडल मान रहा है दरअसल वो Consensual sex था ! फिर इसमे आग मे घी डालने का काम किया उनकी ही पार्टी के प्रवक्ता आशुतोष ने ! उन्होने ही लोगो को बताया कि कैसे कोई आम आदमी से महात्मा बन सकता है , लोगों को यह समझाने की कोशिश की जिसे (कु) कृत्य समझ रहे हैं वो एक प्रक्रिया है कि परमानंद की, उसे हवस समझने की भूल ना करें !
 आपने अपने लेख मे एक सवाल उठाया कि :: सवाल ये भी उठ सकता है के पीड़ित महिला इस वीडियों के 
सार्वजनिक होने के बाद सामने क्यों आई? मगर ये सवाल बेमानी है, क्योंकि आप और हम अपने comfort 

zone से किसीबलात्कार पीड़ितकी मनोदशा पर टिपण्णी नहीं कर सकते। बशर्ते वो बलात्कार पीड़ित है।  

इसका उत्तर सिर्फ़ इतना ही हो सकता है उस महिला को शायद यह ज्ञांत ही ना हो कि ये भद्र पुरुष 

उसके शरीर के साथ साथ उसकी आत्मा के  साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं ! उसकी सहमति/ असहमति 

से इस कृत्य को फ़िल्माना भी अपने आप मे एक अपराध है ! और लोगों का क्या है कि लोग पूरी 

फिल्म को नहीं उसके किसी एकाध अच्छे डायलॉग को याद रखते हैं जैसा कि “केजरीवाल ने कहा था 

भविष्य मे कोई क्या करेगा किसी के माथे पर लिखा नहीं होता" और संदीप कुमार ने कहा था कि “घर 

से निकलते समय अपनी पत्नी के पाँव छूकर ही निकलते हैं” !

आपने के और सवाल पूछा कि "एक ब्लॉग लिखने पर आशुतोष को NCW ने समन क्यों भेजा, तो 

जवाब यह है मित्रवार, सिर्फ़ एक लेख लिखने मात्र से सुब्रमणियम स्वामी पर मुक़दमा कर दिया गया 

था, आपके लिए FREEDOM OF SPEECH के मायने कुछ हैं और किसी अन्य के लिए कुछ और, 

और शायद आप भूल गये कि सुप्रीम कोर्ट ने भी आज़म ख़ान के बयान (जो कि बुलंदशहर की घटना 


को राजनीतिक साजिस साबित करने पर तुले हुए थे ) को अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं बल्कि सीमा 

लांघना कहा था ! इसलिए जज बनने की कोशिश ना ही  करें तो सही है !



और हाँ , अंत मे एक और बात कहना चाहूँगा हर मुद्दे पर कहीं ना कहीं से मोदी को मीडिया ज़रूर घुसेड देती है, CM से PM बनाने मे सबसे बड़ा योगदान है मीडिया का ! ना मीडिया 12 वर्षों तक नरेंद्र मोदी का फर्जी एनकाउंटर करती ना ही पब्लिक की सहानुभूति मोदी के फेवर मे जाती ! इसलिए दर्शक और पाठको से सवाल पूछो ना कि उनपर सवाल खड़े करो !

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

बुद्धिजीवियों , अपनी ना समझी का दोष वेदों को मत दो !!!

अभी डॉ साम्बे जी का एक लेख  “विकृत धार्मिक विचारोंसे भी बनते हैं शहर-शहर बुलंदशहर!” पढ़ा ! समाज मे फैली घृणित मानसिकता को उन्होने जिन श्लोकों से जोड़ने की कोशिश की, वह अच्छा नहीं लगा ! उनके द्वारा श्लोकों की ग़लत व्याख्या करने पर विश्व गौरव ने भी लेख लिखा , “भारतीय साहित्य व परंपराओं को गलत पेशन करें” ! मैं इन दोनो ही लेखकों की तरह बहुत अधिक पढ़ा लिखा तो नहीं हूँ लेकिन कुछ ऐसे ही उदाहरणो के द्वारा कोशिश करूँगा कि साम्बे साहब जैसे बुद्धिजीवियों की ग़लतफहमी दूर हो सके ! काफ़ी दिनों से कुछ ऐसे ही तथा कथित कवि एक बुद्धिजीवी लोग श्री रामचरित मानस की एक चौपाई को बड़ी ही हेय दृष्टि से देखते हैं और उसका ग़लत अर्थ समझाते हैं , वो चौपाई है :
शूद्र गवाँर ढोल पशु नारी ! सकल ताड़ना के अधिकारी !! इस चौपाई की व्याख्या करना , मेरे बस की बात नहीं ! लेकिन एक बात कहना चाहूँगा कि बिना समास, रस और अलंकार के काव्य कुछ भी नहीं होता ! और इन्हीं रस , समास और अलंकारों की ही वजह से काव्य की शोभा बढ़ती है ! काव्य को उनके शाब्दिक अर्थ से ही यदि समझने की कोशिश करेंगे तो आप गुड़ का गोबर कर देंगे ! मैं यहाँ पर श्लेष अलंकार से युक्त एक पंक्ति को उद्धृत करना चाहूँगा, आप उसके शाब्दिक अर्थ को समझिए और फिर उन पंक्तियों को अलंकार के तहत समझिए ! आपको डॉ साम्बे साहब और कवि के विचारों मे फ़र्क नज़र आएगा : चरण धरत, चिंता करत, चितवत चारहूँ ओर !
सुबरन को खोजत फिरै , कवि व्यभिचारी चोर !! इस पंक्ति मे कवि, व्यभिचारी और चोर तीनो सिर्फ़ एक ही वस्तु की हमेशा तलाश करते हैं , वो है सुबरन ! तो क्या साम्बे साहब यह कहना चाहेंगे कि व्यभिचारी जिस "सुबरन" अर्थात सुंदर स्त्री की तलाश करता है उसी की तलाश मे कवि भी है !  उत्तर होगा नहीं ! क्योंकि कवि जिस सुवरन की तलाश मे है उसका अर्थ है "सुंदर वर्ण" उसकी रचना के लिए ! और चोर के लिए वही सुवरन "सोना" (GOLD) है ! यदि इससे समझ मे ना आए तो रहीम जी का लिखा हुआ पढ़ लीजिए :
रहिमन पानी रखिए, बिनु पानी सब सून !
पानी बिना ना उबरै मोती मानस चून !!यहाँ पर तो पानी का एक ही अर्थ तीनो के लिए समान तो नहीं होंगे ना ! सूरदास की एक रचना है , जिसमे उन्होंने उद्धव और गोपियों के बीच के संवाद को लिखा है ! गोपियाँ , उद्धव जी से कहती हैं :कहत कत परदेसी की बात ।मंदिरअरध अवधि बदि हमसौ, हरि अहार चलि जात ।।ससिरिपु बरष, सूररिपु जुग बर, हररिपु कीन्हौ घात ।मघपंचक लै गयौ साँवरौ, तातै अति अकुलात ।।नखत, वेद, ग्रह, जोरि अर्ध करि, सोइ बनत अब खात ।'सूरदास' बस भईं बिरह के, कर मीजैं पछितात ।। यदि आप इस रचना के शाब्दिक अर्थ को समझेंगे तो इसका अर्थ आप पूरे जीवन मे नहीं लगा सकते ! इस काव्य की यही विशेषता है ! इस काव्य की रचना अपने आप मे उत्तम है ! इसका अर्थ समझिए :सूरदास जी लिखते हैं कि गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं कि आप किस परदेसी (श्री कृष्ण जी) की बात कर रहे हैं ! (प्रथम लाइन)मंदिर (घर) अरध (आधा) अर्थात घर का आधा , ड्योढ़ी जिसको पाख बोलते हैं, पाख मतलब पक्ष , और पक्ष का अर्थ लिया 15 दिन ! हरि (सिंह- शेर) ,आहार- भोजन ! सिंह का भोजन अर्थात माँस, माँस को लिया मास के रूप मे , मास का मतलब महीना ! (द्वितीय लाइन )ससि (चंद्रमा) रिपु -शत्रु ! चंद्रमा का शत्रु- यानी रात का शत्रु दिन , वर्ष के समान और सूर (सूर्य) रिपु यानी दिन का शत्रु रात्रि , युग के समान गुज़रता है ! हर (महादेव) रिपु - कामदेव (विरह की वेदना ) हमेशा सालती रहती है ! (तृतीय लाइन )मघ (मघा नक्षत्र) से पंचक (पाँचवा) - चित्रा नक्षत्र , चित्रा का अर्थ लिया चित अर्थात मन से ! और सांवरो का अर्थ लिया श्री कृष्ण जी से ! (चतुर्थ लाइन)नखत (नक्षत्र-27) वेद (4) ग्रह (Planet-9) जोरि (जोड़) अर्ध (आधा) 27+4+9=40, 40/2=20 (बीस), बीस को लिया विष के अर्थ मे (पंचम लाइन)  

अंत मे मैं सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगा कि ये तीनों उदाहरण बहुत प्राचीन नहीं हैं , लेकिन फिर भी इनके अर्थ बड़े ग़ूढ हैं ! जब इनको समझना कठिन है तो वेदों को कैसे समझेंगे ! इसलिए अपनी नासमझी की वजह से किसी भी काव्य के अर्थ को अनर्थ ना किया जाय ! 

 सुभाषितानी मे लिखा है : अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् | परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् || धर्म के प्रति मेरी यही आस्था है !



रविवार, 31 जुलाई 2016

मेरा देश बदल रहा है...
किले दरक रहे हैं. तनाव बढ़ रहा है. पहले तनाव टीवी की रिपोर्टों तक सीमित रहता था. फिर एंकरिंग में संपादकीय घोल देने तक आ पहुंचा. जब उतने में भी बात नहीं बनी तो ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग, अखबार, हैंगआउट – जिसकी जहां तक पहुंच है, वो वहां तक जा कर अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करने लगा.
जब मठाधीशी टूटती है, तो वही होता है जो आज भारतीय टेलीविज़न में हो रहा है. कभी सेंसरशिप के खिलाफ़ नारा लगाने वाले कथित पत्रकार – एक दूसरे के खिलाफ़ तलवारें निकाल के तभी खड़े हुए हैं जब अपने अपने गढ़ बिखरते दिखने लगे हैं. क्यों कि उन्हें लगता था कि ये देश केवल वही और उतना ही सोचेगा और सोच सकता है – जितना वो चाहते और तय कर देते हैं. लेकिन ये क्या ? लोग तो किसी और की कही बातों पर भी ध्यान देने लगे. किसी और की कही बातों पर भी सोचने लगे. और किसी और की कही बातों को सुनने –समझने के बाद, जब उन्हें अहसास हुआ कि आज तक जो देखते-सुनते आए उसका कोई और पक्ष भी है, तो सवाल भी पूछने लगे. बस्स. यही बुरा लग गया मठाधीशों को. हमसे कोई सवाल कैसे पूछ सकता है ? हम अभिव्य़क्ति की आज़ादी अपने लिए मांगते हैं, दूसरों के लिए थोड़े ही न. ब्लॉक करो सालों को. भक्त हैं. दलाल हैं. सांप्रदायिक हैं. राष्ट्रवादी हैं.
दुनिया भर में कत्ल-ए-आम मचा हुआ है. भारत छोड़ के हर मुल्क के पत्रकारों को पता है कि कौन मार रहा है, किसको मार रहा है, किस लिए मार रहा है. सिर्फ भारत का टीवी इस बात पे बहस करता है कि आतंकवाद का धर्म नहीं होता बजाए इसके कि आतंकवाद से उस धर्म को कैसे बचाया जाए. ‘चंद भटके हुए नौजवानों’ के जुमले की आड़ लेने वाले वही सारे पत्रकार, दादरी कांड के बाद पूरे हिंदू समाज को हत्यारा, आतंकवादी, क्रूर और भारत को असहिष्णु का सर्टीफिकेट देने में पल भर की देर नहीं लगाते. लेकिन किला तब दरकता है जब देश असहिष्णुता के नाम पे अवॉर्ड वापसी को ड्रामा मानता है – और इनटॉलरेंट होने की पत्रकारों और संपादकों की उपाधि कुबूल करने से इनकार कर देता है.
कश्मीर में पत्थर चलते हैं. पैलेट गन चलती है. हर बार की तरह कुछ पत्रकार अलगाववादियों के दफ्तरों तक जाते हैं. उनकी बाइट लाते हैं. और बता देते हैं कि कश्मीर तो आज़ादी चाहता है. बुरहान वानी की मां भले बेटे को जिहाद की भेंट चढ़ा कह रही हो, कुछ पत्रकार इसे सेना की ज़्यादती साबित करने में जुटे रहते हैं. लेकिन किले तब दरकते हैं जब गुरेज़ में रहने वाला महबूब बेग, टीवी कैमरे पर भारत माता की जय का नारा लगा देता है, हिंदुस्तान ज़िंदाबाद कहता है और आज़ादी की जंग को बकवास क़रार देता है. क्यों कि देश उस समय उन पत्रकारों से पूछने लगता है कि कश्मीर क्या सिर्फ अलगाववादियों की गलियों में बसता है जनाब ?
गौरक्षा कथित लिबरल पत्रकारों के लिए सबसे बड़ा चुटकुलेबाज़ी का विषय है. बेशक गौरक्षा के नाम पर जो घटनाएं कई जगह घटी हैं, वो माफी के काबिल नहीं हैं. ऐसे तत्वों से कानून को सख्ती से निबटना चाहिए. लेकिन किले तब दरकते हैं जब लोग पूछने लगते हैं कि कुत्ता-रक्षा के लिए तो आपने जान की बाज़ी लगा दी थी. घोड़ा-रक्षा के लिए आप चौराहे पर घोड़े की मूर्ति लगा दिए जाने तक लड़े थे. गैया का क्या कुसूर है? उसके लिए भी लड़िए न! आप लड़ लेते उसके लिए तो शायद ये गली गली गौरक्षा दल की दुकानें न चल पातीं. आपकी मां ने भी तो कभी चूल्हे से पहली रोटी गाय के लिए ही उतारी होगी! चलिए उसके लिए न कीजिए, अपने अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक वाले फेवरेट गेम में इसी बात के लिए गाय को कानूनी हक़ दिला दीजिए कि देश का बहुसंख्यक समाज उसको पूजता है.
झगड़ा राष्ट्रवाद या सेकुलरिज़्म का नहीं है. मसला किसी सरकार के पक्ष या सरकार के विरोध का भी नहीं है. दर्शकों और पाठकों को बेवकूफ़ बनाने के लिए उस पर राष्ट्रवाद बनाम सेकुलरवाद का मुलम्मा वैसे ही चढ़ाया गया, जैसे आज तक हर चीज़ पर चढ़ाया जाता रहा है. सेकुलरिज़्म वाला थोड़ा कमज़ोर पड़ता दिखे तो दलितिज़्म का चढ़ा दो. बाबा साहेब अंबेडकर जब मुंबई में सूट बूट पहन कर निकलते थे, तो जो टिप्पणियां उन पर की गईं – वो स्थिति आज है क्या? और जो दलित उत्थान अभी तक हुआ है – उस तक आने के लिए इन टीवी पत्रकारों ने अपनी रिपोर्टों से कितने ऐसे आंदोलन खड़े किए जिससे दलितों की हालत बेहतर हुई हो? सिवा इसके कि इन्होंने हमेशा दलित और सवर्ण समाज के बीच की खाई को गहरा ही किया. किले तब दरकने लगे जब लोगों ने पूछना शुरू कर दिया – कभी अखबार में हैडलाइन छापते हो क्या – ब्राह्मण युवक की मौत. या क्षत्रिय युवक की मौत. या बनिया युवक की मौत. अगर नहीं तो लूटपाट, चोरी चकारी, डकैती, हत्या, फिरौती में जा के जाति का एंगल क्यों तलाशते हो भाई ? तब आपकी तटस्थता कहां चली जाती है ?
निष्पक्षता और तटस्थता, दो परिस्थितियां हैं. आंख-नाक-कान बंद होने का ड्रामा कीजिए. अपनी पसंद के तथ्य (किसी भी एक तरफ़ के) अपनी च्व़ॉइस के कवर में लपेट कर दर्शक को दीजिए और तटस्थ बने रहिए. या फिर आंख-नाक-कान खुला रखिए और कहिए कि देख-सुन-सोच-समझ कर बता रहा हूं. जो सही है – उसके साथ ताल ठोक के खड़ा हूं, इसलिए मैं तटस्थ नहीं – निष्पक्ष हूं.
और पत्रकार निष्पक्ष हो या तटस्थ, ये जानने-समझने के लिए हमें किसी अमेरिकी या ब्रिटिश पत्रकार का उदाहरण नहीं चाहिए (BBC और CNN दोनों ‘PERSPECTIVE’ के लिए दुनिया भर में कुख्यात हैं, इसके हज़ारों उदाहरण हैं). राजा राम मोहन राय, लाला लाजपत राय, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी ने पर्याप्त पत्रकारिता की है। भारतीयों को, भारतीय परिस्थिति में, भारत के हित की पत्रकारिता सिखाने के लिए वो काफ़ी है.

मेरा देश बदल रहा है...
किले दरक रहे हैं. तनाव बढ़ रहा है. पहले तनाव टीवी की रिपोर्टों तक सीमित रहता था. फिर एंकरिंग में संपादकीय घोल देने तक आ पहुंचा. जब उतने में भी बात नहीं बनी तो ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग, अखबार, हैंगआउट – जिसकी जहां तक पहुंच है, वो वहां तक जा कर अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करने लगा.
जब मठाधीशी टूटती है, तो वही होता है जो आज भारतीय टेलीविज़न में हो रहा है. कभी सेंसरशिप के खिलाफ़ नारा लगाने वाले कथित पत्रकार – एक दूसरे के खिलाफ़ तलवारें निकाल के तभी खड़े हुए हैं जब अपने अपने गढ़ बिखरते दिखने लगे हैं. क्यों कि उन्हें लगता था कि ये देश केवल वही और उतना ही सोचेगा और सोच सकता है – जितना वो चाहते और तय कर देते हैं. लेकिन ये क्या ? लोग तो किसी और की कही बातों पर भी ध्यान देने लगे. किसी और की कही बातों पर भी सोचने लगे. और किसी और की कही बातों को सुनने –समझने के बाद, जब उन्हें अहसास हुआ कि आज तक जो देखते-सुनते आए उसका कोई और पक्ष भी है, तो सवाल भी पूछने लगे. बस्स. यही बुरा लग गया मठाधीशों को. हमसे कोई सवाल कैसे पूछ सकता है ? हम अभिव्य़क्ति की आज़ादी अपने लिए मांगते हैं, दूसरों के लिए थोड़े ही न. ब्लॉक करो सालों को. भक्त हैं. दलाल हैं. सांप्रदायिक हैं. राष्ट्रवादी हैं.
दुनिया भर में कत्ल-ए-आम मचा हुआ है. भारत छोड़ के हर मुल्क के पत्रकारों को पता है कि कौन मार रहा है, किसको मार रहा है, किस लिए मार रहा है. सिर्फ भारत का टीवी इस बात पे बहस करता है कि आतंकवाद का धर्म नहीं होता बजाए इसके कि आतंकवाद से उस धर्म को कैसे बचाया जाए. ‘चंद भटके हुए नौजवानों’ के जुमले की आड़ लेने वाले वही सारे पत्रकार, दादरी कांड के बाद पूरे हिंदू समाज को हत्यारा, आतंकवादी, क्रूर और भारत को असहिष्णु का सर्टीफिकेट देने में पल भर की देर नहीं लगाते. लेकिन किला तब दरकता है जब देश असहिष्णुता के नाम पे अवॉर्ड वापसी को ड्रामा मानता है – और इनटॉलरेंट होने की पत्रकारों और संपादकों की उपाधि कुबूल करने से इनकार कर देता है.
कश्मीर में पत्थर चलते हैं. पैलेट गन चलती है. हर बार की तरह कुछ पत्रकार अलगाववादियों के दफ्तरों तक जाते हैं. उनकी बाइट लाते हैं. और बता देते हैं कि कश्मीर तो आज़ादी चाहता है. बुरहान वानी की मां भले बेटे को जिहाद की भेंट चढ़ा कह रही हो, कुछ पत्रकार इसे सेना की ज़्यादती साबित करने में जुटे रहते हैं. लेकिन किले तब दरकते हैं जब गुरेज़ में रहने वाला महबूब बेग, टीवी कैमरे पर भारत माता की जय का नारा लगा देता है, हिंदुस्तान ज़िंदाबाद कहता है और आज़ादी की जंग को बकवास क़रार देता है. क्यों कि देश उस समय उन पत्रकारों से पूछने लगता है कि कश्मीर क्या सिर्फ अलगाववादियों की गलियों में बसता है जनाब ?
गौरक्षा कथित लिबरल पत्रकारों के लिए सबसे बड़ा चुटकुलेबाज़ी का विषय है. बेशक गौरक्षा के नाम पर जो घटनाएं कई जगह घटी हैं, वो माफी के काबिल नहीं हैं. ऐसे तत्वों से कानून को सख्ती से निबटना चाहिए. लेकिन किले तब दरकते हैं जब लोग पूछने लगते हैं कि कुत्ता-रक्षा के लिए तो आपने जान की बाज़ी लगा दी थी. घोड़ा-रक्षा के लिए आप चौराहे पर घोड़े की मूर्ति लगा दिए जाने तक लड़े थे. गैया का क्या कुसूर है? उसके लिए भी लड़िए न! आप लड़ लेते उसके लिए तो शायद ये गली गली गौरक्षा दल की दुकानें न चल पातीं. आपकी मां ने भी तो कभी चूल्हे से पहली रोटी गाय के लिए ही उतारी होगी! चलिए उसके लिए न कीजिए, अपने अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक वाले फेवरेट गेम में इसी बात के लिए गाय को कानूनी हक़ दिला दीजिए कि देश का बहुसंख्यक समाज उसको पूजता है.
झगड़ा राष्ट्रवाद या सेकुलरिज़्म का नहीं है. मसला किसी सरकार के पक्ष या सरकार के विरोध का भी नहीं है. दर्शकों और पाठकों को बेवकूफ़ बनाने के लिए उस पर राष्ट्रवाद बनाम सेकुलरवाद का मुलम्मा वैसे ही चढ़ाया गया, जैसे आज तक हर चीज़ पर चढ़ाया जाता रहा है. सेकुलरिज़्म वाला थोड़ा कमज़ोर पड़ता दिखे तो दलितिज़्म का चढ़ा दो. बाबा साहेब अंबेडकर जब मुंबई में सूट बूट पहन कर निकलते थे, तो जो टिप्पणियां उन पर की गईं – वो स्थिति आज है क्या? और जो दलित उत्थान अभी तक हुआ है – उस तक आने के लिए इन टीवी पत्रकारों ने अपनी रिपोर्टों से कितने ऐसे आंदोलन खड़े किए जिससे दलितों की हालत बेहतर हुई हो? सिवा इसके कि इन्होंने हमेशा दलित और सवर्ण समाज के बीच की खाई को गहरा ही किया. किले तब दरकने लगे जब लोगों ने पूछना शुरू कर दिया – कभी अखबार में हैडलाइन छापते हो क्या – ब्राह्मण युवक की मौत. या क्षत्रिय युवक की मौत. या बनिया युवक की मौत. अगर नहीं तो लूटपाट, चोरी चकारी, डकैती, हत्या, फिरौती में जा के जाति का एंगल क्यों तलाशते हो भाई ? तब आपकी तटस्थता कहां चली जाती है ?
निष्पक्षता और तटस्थता, दो परिस्थितियां हैं. आंख-नाक-कान बंद होने का ड्रामा कीजिए. अपनी पसंद के तथ्य (किसी भी एक तरफ़ के) अपनी च्व़ॉइस के कवर में लपेट कर दर्शक को दीजिए और तटस्थ बने रहिए. या फिर आंख-नाक-कान खुला रखिए और कहिए कि देख-सुन-सोच-समझ कर बता रहा हूं. जो सही है – उसके साथ ताल ठोक के खड़ा हूं, इसलिए मैं तटस्थ नहीं – निष्पक्ष हूं.
और पत्रकार निष्पक्ष हो या तटस्थ, ये जानने-समझने के लिए हमें किसी अमेरिकी या ब्रिटिश पत्रकार का उदाहरण नहीं चाहिए (BBC और CNN दोनों ‘PERSPECTIVE’ के लिए दुनिया भर में कुख्यात हैं, इसके हज़ारों उदाहरण हैं). राजा राम मोहन राय, लाला लाजपत राय, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी ने पर्याप्त पत्रकारिता की है। भारतीयों को, भारतीय परिस्थिति में, भारत के हित की पत्रकारिता सिखाने के लिए वो काफ़ी है.

शनिवार, 28 मई 2016

दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को पत्र

माननीय श्री सत्येंद्र जैन ,
स्वास्थ्य मंत्री , दिल्ली सरकार

विषय : कलावती सरण अस्पताल मे छोटी सी सर्जरी के लिए समय

महोदय, नमस्कार, एक छोटी सी बच्ची है नंदिनी, उम्र 11 माह ! समस्या : जन्म से होठ कटा हुआ !

श्री मान जी, इस बच्ची का जन्म एक निजी अस्पताल मे जून 2015 मे हुआ था , जन्म से ही बच्ची की नाक ने नीचे होठ कटे हुए हैं ! उस समय उस अस्पताल की डॉक्टर ने ही सलाह दिया था कि आप कलावती सरण अस्पताल चले जाइए , वहाँ पर इसकी छोटी सी सर्जरी कर देंगे तो यह ठीक हो जाएगा !



इस आशय के साथ की बच्ची का इलाज हो जाएगा , तो 28 जुलाई 2015 को OPD मे रजिस्ट्रेशन
करवा लिया ! कुछ इलाज , जाँच और जाँच रिपोर्ट इन तीनो ने मिलकर मध्य फ़रवरी 2016 तक का समय लिया ! इसके बाद जब सब कुछ ठीक रहा तो डॉक्टर साहब ने बोल दिया कि अब आप 3 महीने बाद आना ! और अब जब आज दिनांक 28 मई 2016 को उन डॉक्टर साहब से मिलने गये तो उन्होने फिर से अगले 3 महीने बाद आने की तिथि बताई है !

तिथि नहीं बल्कि अपना मोबाइल नंबर दिया कि 3 महीने बाद फ़ोन करके पूछ लेना कि कब आना है ! अर्थात 3 माह बाद भी यह सुनिश्चित नहीं है कि इस बच्ची की सर्जरी होगी !

आपसे विनम निवेदन है कि आप दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री होने के नाते यह जवाब देने का कष्ट करेंगे कि आख़िर इस प्रक्रिया मे लगभग 1 वर्ष हो गये और नतीज़ा ज़ीरो ! 

आप यदि उस बच्ची के बारे मे यदि अच्छा सोचते हैं तो इस ई- मेल siddhnath121@yahoo.com  पर लिख सकते हैं , मैं इस बच्ची के पिता तक आपकी बात पहुँचा दूँगा ! धन्यवाद !!! इस इंतज़ार मे कि आप जवाब ज़रूर देंगे !

This is reply from PS to Mr Satender jain (Swasth Minister):


आपका
सिद्धू जौनपूरिया